होली, चोली और हमजोली- 1

मैं एक सेक्स ऐडिक्ट गर्ल हूँ. मैं बहुत अच्छी लड़की थी पर मुझे मेरा प्यार नहीं मिला तो मैं सेक्स की ओर झुकती चली गयी. मैंने कई दोस्त बनाये, उनसे सेक्स किया.

यह कहानी सुनें.

नमस्कार दोस्तो, मैं वीनस एक नए नाम से हाजिर हूं एक नई कहानी लेकर!
आप सभी ने मेरी पिछली कहानियों को दूसरी साईट अन्तर्वासना 3 पर पढ़कर सराहा और जी भर के मुठ भी मारी।

अब मैंने नए पेन नेम ‘वीनस’ से इस नयी साईट पर लिखना शुरू किया है.
मुझे आशा है कि आप मुझे वैसा ही प्यार देते रहेंगे.

यह कहानी है दफ्तर में आई नई लड़की को पका कर पुराना किए जाने की.
कि कैसे एक अधीक्षक उसके नीचे काम करने वाली सभी लड़कियों को केवल भोग की वस्तु समझता है और लड़कियों का इस्तेमाल करता है केवल अपनी काम क्रीड़ा के लिए!

बात कुछ बरस पहले की है, मेरी नई नौकरी लगे लगभग छह माह बीत चुके थे।
मैं नए दफ्तर में ज्यादा किसी से घुलती मिलती नहीं थी।
किसी को मेरी चुदास जिंदगी और चुदक्कड़ दिमाग के बारे में कुछ भी अंदाजा नहीं था।

ऐसे में मैं अपनी भावनाएं, आशाएं और अपने कामुक ख्यालों को अपने भीतर ही रखती थी।
दफ्तर में मैं एक भोली भाली और सहमी सहमी लड़की के रूप में जानी जाती थी जबकि वास्तव में मैं सेक्स ऐडिक्ट गर्ल हूँ।

मेरे से ऊंचे ओहदे पर काम करने वाले मेरे सहकर्मी मुझसे हंसी मज़ाक करते और मेरे सामने द्विअर्थी बातें किया करते थे।
पर मैं उन पर ध्यान दिए बगैर अपने काम में व्यस्त रहती।

मेरे सहकर्मियों में सभी मुझसे बड़े और तीस मारखां लोग थे।
दफ्तर में सुबह सुबह तो ठहाके गूंजते थे और दोपहर होते होते सब शांत हो अपने काम में लग जाते, शाम तक दारू के लिए मचान जाने का माहौल बन जाता।

मैं सुबह आठ बजे की आई, शाम को सात बजे निकला करती थी.

मेरे दफ्तर की कुछ लड़कियां हमारे अधीक्षक और सहकर्मियों के साथ शाम में दारू पीने जाती थी।
उन शामों में क्या होता था किसी को कुछ खबर नहीं थी।

मैंने कभी जानने की हिम्मत नहीं की क्योंकि मैं स्वयं अपने कामुक विचारों से पोषित थी और नहीं चाहती थी कि मेरी नौकरी पर मेरे अंतहीन काम की चाह का प्रभाव पड़े।

हमारे दफ्तर में हर छः माह में हर टीम शहर से बाहर घूमने जाती थी, जिसे ‘लर्निंग इवेंट’ कहा जाता था।
यह इवेंट कभी एक रात के लिए, कभी दो या तीन रातों के लिए होता।

होली आने को थी और अर्धवार्षिक लर्निंग इवेंट भी।

एक ईमेल सबको वितरित की गई कि इस बार का इवेंट होली पर होगा और हम सभी उत्तराखण्ड में कॉर्बेट के एक रिसॉर्ट में जाने वाले हैं. हम वहां 2 रातों के लिए रुकेंगे.
पहले दिन शाम को खेल कूद के कुछ कार्यक्रम होंगे और इस साल अब तक काम कैसा रहा और आगे के क्या टारगेट हैं वो बताए जाएंगे.
टीम में अच्छा काम करने वालों को अवार्ड भी वितरित किए जायेंगे।
शाम में नाच गाना और डिनर पार्टी होगी, जिसमें कुछ डांस परफॉर्मेंस और संगीत की परफॉर्मेंस होंगी।
दूसरे दिन सुबह होली का कार्यक्रम होगा जिसमें भांग, पकौड़े और नाश्ते का इंतजाम होगा।
दोपहर के खाने के बाद शाम में कॉकटेल पार्टी होगी और टीम बिल्डिंग गेम्स होंगी और तीसरे दिन सुबह सभी बस से निकलेंगे दिल्ली के लिए!

होली के दिन लड़कियों को साड़ी और लड़कों को कुर्ता पजामा पहनने का फरमान था!

पढ़ने में तो सब काफी अच्छा लग रहा था पर मुझे एक ही बात का डर था.
शाम ढलते ही मेरे अंदर जो रण्डी की आत्मा का प्रवेश होता है, कहीं वो सब माहौल खराब न कर दे।

मेरी दबी इच्छाएं जो ढलती शाम के साथ और प्रबल होती जाती हैं जो दारू पीने के बाद नहीं देखती कि सामने कौन मर्द है, बस शर्म के सारे परदे गिराती चली जाती हैं।

खैर, इस बात की संतुष्टि थी कि मेरे साथ मेरी एक और महिला सहकर्मी कमरा बांटने वाली थी।
किसी के रहने से मैं शायद खुद पर काबू कर पाऊं।

मैंने पार्टी में पहनने के लिए काली मिनी-स्कर्ट और एक खूबसूरत लाल क्रॉपटॉप पैक किया।

अब मैं इस सोच में पड़ी थी कि साड़ी कहां से लाऊं!
और मां की साड़ी पहन भी लूं तो ब्लाउज और पेटीकोट का क्या?

फिर मैंने यू-टयूब पर देखा कि किस तरह अंडरवियर को टॉप / ब्लाउज की तरह पहना जा सकता है।
यहां तक कि पुरानी लेगिंग को भी काटकर पूरी बाज़ू का ब्लाउज बनाया जा सकता है।

बस फिर क्या था, मैंने अपनी पुरानी सफेद लेगिंग निकाली और काट कर ब्लाउज बना लिया।
क्योंकि मैं ये पहली बार कर रही थी तो गलती से गला कुछ ज्यादा गहरा कट गया.
मैंने मन मन में सोचा कि साड़ी से ढक लूंगी।

अब पेटीकोट का भी जुगाड़ करना था।

तो मैंने ऑनलाइन देखा कि किस तरह बिना पेटीकोट के, एक नाड़े के साथ भी साड़ी बांधी जा सकती है.
इस बार मैंने पहले अभ्यास किया और दो तीन बार कोशिश के बाद मैं बिना पेटीकोट के साड़ी पहनने में कामयाब रही।

अपना जरूरी सामान रख मैंने अपना बाकी का बैग भी तैयार कर लिया।

हमें दफ्तर से बस मिलने वाली थी, सुबह आठ बजे बस गुड़गांव से रवाना होकर दिल्ली और यूपी से होते हुए कॉर्बेट पार्क पहुंचने वाली थी।

मैं सही वक्त पर ऑफिस पहुंच गई और बस में बैठ गई.
जाने वाले सभी लोगों की सूची पहले से तैयार थी, सबकी हाजिरी के बाद करीबन सुबह के साढ़े आठ बजे बस निकल पड़ी।

बस में सभी लोग हंसी मज़ाक कर रहे थे, एक कोने पर स्पीकर पर गाने बज रहे थे और कुछ लोग गाने गा रहे थे।

कुछ घंटे ये सब चला, फिर धीरे धीरे सब बोर होकर अपनी अपनी जगह बैठ गए.
सफर लंबा था, हमें मार्गदर्शक मानचित्र पांच घंटे का रास्ता दिखा रहा था।
रास्ते में जलपान, भजन आदि के लिए भी रुकना था तो 2-3 घंटे और जोड़ कर हमने 7-8 का सफर करना था. और फिर बस तो जाम में भी फंस जाती है।

मैंने अपने कानों में सेक्स ऑडियो लगाया और आंखें बंद कर मजा लेने लगी।
पूरी दुनिया को भूल मैं सेक्स ऑडियो में खो गई।

हालांकि वहां उस वक्त बस में उंगली करना संभव नहीं था पर मैं अपने ख्यालों में खोए हुए ही गर्म हुए जा रही थी।

जैसा कि मैंने अपनी पिछली कहानियों में लिखा है, मुझे सिर्फ सोचने भर से कामुकता चढ़ जाती है, किसी के छूने या चूमने की कोई जरूरत नहीं पड़ती; चूत खुद ब खुद गीली हो जाती है।

थोड़ी देर बाद मेरी आंख लग गई.
जब मैं उठी तो मेरा फोन मेरे पास नहीं था और मेरा हेड फोन भी गायब था।

मैंने काफी ढूंढा पर नहीं मिला, मुझे लगा मेरा फोन खो गया।
आसपास के सहकर्मियों से भी मैंने पूछा पर उन्होंने बताया कि किसी ने नहीं देखा कहीं।

मैं उदास होकर बैठ गई।
कुछ देर बाद पीछे की सीटों पर बैठे अधीक्षक उठ कर आए और मुझे मेरा फोन दिखाते हुए पूछा- क्या यह फोन तुम्हारा है?
मैंने हां में जवाब दिया और फोन ले लिया।

अब डर यह था कि कहीं उन्होंने देखा या सुना तो नहीं कि मेरे फोन में क्या चल रहा था।
मेरा फोन लॉक रहता है तो खोल तो कतई नहीं पाए होंगे, बस अब आशा यह है कि ऑडियो ख़त्म हो गया हो, फोन उनके हाथ लगने से पहले तक!
यही सोच मैं खुद को ढांढस बंधाती हुई चुपचाप बैठ गई।

अधीक्षक का नाम दीपक था, वो मुझसे तकरीबन 20 साल बड़े रहे होंगे. उस वक्त मैं 25 बरस की हुआ करती थी और मेरे पहले और दूसरे आशिक को अपनी जिंदगी से निकाल चुकी थी।

मेरे मैनेजर धीरज वैसे तो बहुत अच्छे थे, पर रह रह कर वो घुमा फिरा के यही पूछते कि मैं शादी कब करने वाली हूं.
अब कौन उनको समझाए कि रांड की शादी नहीं दल्ले होते हैं।

मेरे फोन की बैटरी खत्म ना हो इसीलिए मैंने फोन एयरप्लेन मोड पे कर दिया और बैग में रख दिया।

अब मैं लोगों की बातें सुनने लगी.
थोड़ी ही देर में अंताक्षरी शुरू हो गई, बस की बायीं वाली सीटें एक टीम और दाईं वाली सीटें दूसरी टीम बन गई, मैं दूसरी टीम का हिस्सा थी।

पीछे की सीटों पर बैठे मैंनेजर और अधीक्षक स्कोर रखने वाले थे।
धीरे धीरे समा बंधने लगा और गानों में मजा आने लगा.

मेरी टीम आगे चल रही थी कि तभी हमारे पास अक्षर आया ‘ज़’ … सब सोच में पड़ गए कि तभी मुझे गाना याद आया.

“ज़रा ज़रा टच मी … टच मी … टच मी … ज़रा ज़रा किस मी … किस मी … किस मी” मैं गा रही थी.
और अधीक्षक दीपक मुझे गौर से देख रहे थे और फुसफुसा कर धीरज से बात कर रहे थे।
कुछ देर ऐसे ही चलता रहा।

हमारी टीम जीत गई।

इतने में बस धामपुर के बाहरी इलाके में ढाबे पे रुकी, 1 बजने को था, दोपहर के खाने का समय हो चला था।
सभी लोग बारी बारी से बस से उतर गए, मैं भी सबके साथ उतर गई।

ढाबे पर परांठे और कचौरी सब्जी, ब्रेड पकौड़े, रोटी, दाल, चावल और चाय कॉफी का इंतजाम था।

मैंने थोड़ा बहुत खाया और वापिस बस में आ गई.
सुबह की सेक्स ऑडियो से उमड़ी चुदास भी तो शांत करनी थी।

मन तो किया बस के ड्राइवर के लोड़े पे बैठ जाऊं!
पर इतना वक्त नहीं था कि पहले लोड़ा खड़ा करो और फिर उससे चुदो।

इसीलिए मैं अपनी सीट पे गई, खिड़की की तरफ बैग अटकाया … किसी और का बैग अपने बाएं ओर रखा, अपनी तंग पजामी में हाथ डाला और उंगली करने लगी.

जाने क्यों आंखें बंद करके, रह रह कर दीपक ही दिखाई दे रहा था.
मुझे अपने से दोगुनी उम्र के या उससे भी बड़े मर्द बेहद पसंद हैं।

मैं उसके बारे में सोच अपनी चूत सहलाने लगी.
हल्के हल्के फिरती हुई उंगली कब तेजी से अन्दर बाहर होने लगी, पता नहीं चला.
मुझे लगा कि दीपक मेरी गीली चूत चाट रहा है।

उन दिनों मेरी चूत चटाई की अधूरी कामना रह रह कर कामुक माहौल में उभर के बाहर आती थी.
दीपक का चेहरा अपनी चूत में घुसा सोच, मैं जोर जोर से उंगली करते हुए झड़ गई।

बैग में रखे फेस टिश्यू से अपना हाथ साफ किया और दोनों बैग को उनकी जगह पर वापिस रख दिया।
ये सब सिर्फ 5 से 10 मिनट में हुआ।

अब मुझे मूतना था … पर मैं सार्वजनिक टॉयलेट में जाना पसंद नहीं करती तो मैंने अपना मूत रोक कर कंट्रोल किया।
मेरी उंगली में से अब भी मेरी चूत की मादक सुगंध आ रही थी जिसे बार बार सूंघ कर मैं और उत्तेजित हो रही थी।

कुछ देर बाद सभी बस में वापिस आ गए.
दीपक आकर बोले- हम आपको ढाबे पे ढूंढ रहे थे गिनती करने के लिए, आपका फोन भी नहीं लग रहा था. कहां थीं आप?
वो चिंतित हो बोले.

मैंने झूठ बोलते हुए कहा- मैं टॉयलेट चली गई थी, फोन बस में था. सॉरी … यदि मेरे कारण तकलीफ हुई सबको!
कैसे कहती मैं उन्हें कि आपको अपनी टांगों में भींच के आपके होंठों से चुद रही थी।

उन्होंने कहा- चलो जाने दो, पर कम से कम फोन ऑन रखो और अपने पास रखो, कोई यहीं रह गया तो बड़ी तकलीफ हो जायेगी।

मैं उदास सा चेहरा बना के वापिस अपनी सीट पे बैठ गई.
अब एक बार फिर गिनती हुई और अब सभी लोग पूरे थे।

सब खाना खाकर आलस्य में आ चुके थे और धीरे धीरे देखते ही देखते सब अपनी अपनी सीट पर सो गए।

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